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कपट, आडम्बर, आत्म-वंचना
अपने सच्चे 'स्व' के प्रति पूरी तरह वफादार और सच्चे बनो । भगवान् के प्रति अपने उत्सर्ग में किसी भी छल को अन्दर घुसने न दो । १ जनवरी, १९३४ * कपट विनाश के पथ की ओर ले जाता है ।
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तुम्हारी साधना में महत्त्वपूर्ण चीज है पग-पग पर सच्चाई । अगर वह हो तो भूलें सुधारी जा सकती हैं और उनका बहुत महत्त्व नहीं होता । अगर जरा भी कपट हो तो वह तुरन्त साधना को नीचे खींच लेता है । लेकिन यह सतत सचाई मौजूद है या नहीं या किसी बिन्दु पर पतन हो जाता है--यह एक ऐसी चीज है जिसे तुम्हें अपने अन्दर देखना सीखना होगा; अगर उसके लिए गम्भीर और स्थायी इच्छा हो, तो उसे देखने की शक्ति आ जायेगी । सचाई दूसरों को सन्तुष्ट करने पर बिलकुल निर्भर नहीं है--यह आन्तरिक मामला है और केवल ऐकान्तिक रूप से मेरे और तुम्हारे बीच की बात है । १२ मई, १९३१ *
सच्चे बनो और आवश्यक हो तो मैं तुम्हारी भूलें हजार बार ठीक करने के लिए भी तैयार हूं । * जो सच्चे हैं मैं उनकी सहायता कर सकती हूं और उन्हें आसानी से भगवान् के प्रति मोड़ सकती हूं । लेकिन जहां कपट हो वहां मैं बहुत कम ही कर सकती हूं । * मैं सचाई के साथ अनुभव करता हूं कि मे ओर कुछ नहीं, केवल
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हां, यह सत्ता का कपट है, जिसमें एक भाग भगवान् को चाहता है और दूसरा किसी और वस्तु को ।
अज्ञान और मूर्खता के कारण सत्ता में सचाई का अभाव है । लेकिन, दृढ़ संकल्प और 'भागवत कृपा' में पूर्ण विश्वास द्वारा व्यक्ति इस कपट को दूर कर सकता है ।
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जब तक व्यक्ति के अन्दर आन्तरिक द्वन्द्व की सम्भावना रहती है, तो इसका यह अर्थ होता हे कि उसमें अब भी कुछ कपट हे ।
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कोई भी आन्तरिक द्वन्द्व सचाई के अभाव का चिह्न है ।
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केवल वही जो पहले से ही काफी सच्चे हैं यह जानते हैं कि वे पूरी तरह सच्चे नहीं हैं । १७ जून, १९५४
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जब तुम्हें यह विश्वास हो कि तुमने पूर्ण सचाई पा ली है, तो निश्चय जानो कि तुम मिथ्यात्व में डूब गये हो ।
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यह सोचने का कोई फायदा नहीं कि हम बहुत सच्चे हैं । यह सोचना भी बेकार है कि हम सच्चे नहीं हैं । उपयोगी है सच्चे बनना । *
७५ सत्ता का हर विभाजन कपट है ।
सबसे बड़ा कपट है अपने शरीर और अपनी सत्ता के सत्य के बीच एक खाई खोदना ।
जब एक खाई तुम्हारी सच्ची सत्ता को तुम्हारी भौतिक सत्ता से अलग करती है तो 'प्रकृति' उसे तुरन्त सब प्रकार के विरोधी सुझावों से भर देती है । उनमें सबसे अधिक विकट है भय और सबसे अधिक घातक है सन्देह ।
कहीं भी, किसी चीज को अपनी सत्ता के सत्य का निषेध न करने दो--यही निष्कपटता है । ७ जुलाई, १९५७
* 'शाश्वत चेतना' के सामने सचाई की एक बूंद का मूल्य पाखण्ड और ढोंग के सागर से बढ़कर है । *
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अगर मेरी सचाई पूर्ण है तो मुझे अच्छा दीखने की जरूरत नहीं । दीखने की अपेक्षा होना ज्यादा अच्छा है ।
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२५ जून १९६३ *
७६ है । वे अपने-आपको भिन्न-भिन्न सैकड़ों तरीकों से धोखा देते हैं जिनमें से हर एक दूसरे से अधिक धूर्ततापूर्ण चालाकी से भरा और सूक्ष्म होता है और इसमें दोनों मिले रहते हैं--पूरी सरलता और पूर्ण कपट ।
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जो कोई सचाई के साथ योग करता है उसमें निश्चित रूप से सभी परिस्थितियों का सामना करने की आवश्यक शक्ति और स्थिरता होगी ।
लेकिन असंख्य हैं वे जो अपने-आपको धोखा देते हैं, यह मानते हैं कि वे योग कर रहे हैं लेकिन करते हैं आंशिक रूप में ही, फिर भी विरोधों से भरे रहते हैं । २० अप्रैल १९६६
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पूरी तरह सच्चे बनो, कभी दूसरों को छलने की कोशिश मत करो । और कोशिश करो कि अपने-आपको कभी धोखा न दो । आशीर्वाद ।
१७ फरवरी १९६८ *
भगवान् को धोखा देने की कोशिश न करो ।
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महत्त्वपूर्ण बात है अधिक से अधिक सच्चा होना, हमेशा अधिक सच्चा होना जिससे तुम अपने-आपको अपनी अभीप्सा की पूर्णता में कभी धोखा न दो ।
यह सचाई निश्चित रूप से 'भागवत कृपा' लाती है । आशीर्वाद । *
७७ यह देखना आसान है कि भूलें सत्ता में सचाई के अभाव के कारण होती है--इससे निकलने का एकमात्र उपाय है सच्चा बनना । तुम्हें इस उद्देश्य के लिए संकल्प, शक्ति और ज्ञान दिये गये हैं । ९ मार्च, १९६८ *
स्वयं सच्चा बनने के लिए यह जरूरी नहीं है कि तुम औरों के सच्चा बनने का इन्तजार करो । ९ मार्च, १९६८ *
पूर्ण सचाई के सबसे बड़े शत्रु हैं अभिरुचियां (चाहे मानसिक हों या प्राणिक हों या भौतिक) और पहले से बनायी धारणाएं । इन बाधाओं पर विजय पानी चाहिये ।
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